🌅 सुबह की वो हल्की ठंडक
सुबह का वक्त था, आसमान पर हल्का कुहासा फैला हुआ था। आँगन में दादी चूल्हे पर रोटियाँ सेंक रही थीं, और उनकी आँखों में वही सुकून था जो शहर की लाखों लाइटों में भी नहीं मिलता।
उन्होंने मुझे देखा और मुस्कुरा कर कहा, “चल बेटा, आज मेरे साथ खेत चल।”
मुझे लगा, जैसे कोई छोटा सा एडवेंचर शुरू होने वाला है। मैं जल्दी से उठकर तैयार हुआ, पर जैसे ही चप्पल पहनने लगा, दादी बोलीं —
“नंगे पाँव चल, खेत की मिट्टी को महसूस कर, तभी समझेगा इसका असली स्वाद।”
🌾 खेत की ओर पहली चाल
घर से खेत तक का रास्ता लगभग एक किलोमीटर का था, पर हर कदम पर कोई न कोई याद या कहानी बसी हुई थी।
पीपल के पेड़ के नीचे कुछ बुज़ुर्ग बैठे थे, हाथों में लोटा लिए, और चेहरे पर सुकून की झलक। रास्ते में गायें चरती दिखीं, बच्चे मिट्टी में खेल रहे थे, और हवा में घुली थी ताज़ी घास की खुशबू।
दादी की चाल धीमी थी लेकिन उनकी नज़रें खेतों पर टिक गई थीं — जैसे वो हर पेड़, हर पौधे को पहचानती हों।
मैंने पूछा, “दादी, आपको कैसे पता चलता है कि कौन-सा खेत किसका है?”
वो मुस्कुराईं, “जिस मिट्टी से रिश्ता हो, वो कभी अनजान नहीं लगती।”
🌻 मिट्टी की खुशबू और मेहनत की सीख
खेत पहुँचे तो सूरज की पहली किरणें फसलों पर पड़ने लगी थीं। हवा में सरसों के फूलों की महक थी और मिट्टी से उठती भाप दिल को सुकून दे रही थी।
दादी झुककर थोड़ी मिट्टी उठाई, उसे सूँघा और बोलीं, “अभी यह मिट्टी तैयार है, देख कितनी नर्म है।”
मैंने भी हाथ में मिट्टी ली — वो ठंडी थी, जैसे कोई पुरानी याद छू गई हो।
दादी बोलीं, “बेटा, यही मिट्टी हमारी माँ है। हम इसे जो देंगे, वही लौटाएगी।”
उनके शब्दों में इतनी गहराई थी कि मैं कुछ पल के लिए चुप हो गया।
🚜 बैलों की चाल और खेत का संगीत
थोड़ी देर में चाचा बैलों के साथ आ गए। हल मिट्टी में घुसा तो आवाज़ आई – चर्र… चर्र…
दादी ने मुस्कुराकर कहा, “सुन, ये खेत का गाना है।”
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेहनत की भी आवाज़ इतनी प्यारी हो सकती है।
दादी बोलीं, “जब तू बड़ा होगा ना, शहर जाएगा, पर इस आवाज़ को मत भूलना। यही असली जीवन का संगीत है।”
उनकी बात सुनकर मेरा दिल भर आया। मैं सोचने लगा — हम सब उस मिट्टी से दूर भाग रहे हैं, जो हमें सबसे ज़्यादा सुकून देती है।
🌞 दोपहर की धूप और खेत की थाली
दोपहर होते-होते सूरज तेज़ हो गया। दादी ने अपनी साड़ी से पसीना पोंछा और पेड़ की छाँव में बैठ गईं।
फिर अपने कपड़े की झोली से कुछ निकाला — रोटी, नमक और थोड़ा सा गुड़।
“खा ले,” उन्होंने कहा, “यही खेत की थाली है।”
मैंने रोटी का टुकड़ा तोड़ा, गुड़ रखा और खाया। वो स्वाद ऐसा था जिसे किसी रेस्तरां की प्लेट दोहरा ही नहीं सकती।
दादी बोलीं, “ये रोटी मेहनत से बनी है, इसलिए इसका स्वाद कभी फीका नहीं पड़ता।”
💧 नहर किनारे का सुकून
खाने के बाद दादी ने कहा, “चल, नहर के पास बैठते हैं।”
नहर का पानी धीरे-धीरे बह रहा था, और उसकी आवाज़ किसी लोरी जैसी लग रही थी।
मैंने अपने पैर पानी में डाल दिए — ठंडक ने सारा थकान मिटा दिया।
दादी ने कहा, “ये पानी खेत को ज़िंदा रखता है, और खेत हमें।”
मैंने उन्हें देखा — उनकी झुर्रियों में एक कहानी थी, हर लकीर में एक मेहनत छिपी थी।
🌄 शाम की लाली और लौटते कदम
शाम होते-होते आसमान लाल हो गया। दादी ने अपनी डंडी उठाई और बोलीं, “चल, घर चलें।”
वो धीरे-धीरे चल रही थीं, लेकिन उनके कदमों में संतोष था।
मैंने पीछे मुड़कर खेतों की तरफ देखा — हवा में लहराती फसलें, मिट्टी की खुशबू, और डूबते सूरज की गर्मी… सब मेरे दिल में उतर गए थे।
उस दिन मैंने सीखा — ज़िंदगी खेत जैसी है, अगर तू मेहनत से जोतेगा, तो खुशियाँ ज़रूर उगेंगी।
💬 वो सीख जो जिंदगी भर रहेगी
रात को जब गाँव में लौटकर दादी ने चूल्हा जलाया, तो मैं वहीं बैठ गया।
उन्होंने धीरे से कहा, “देख बेटा, खेत हमें सिर्फ अनाज नहीं देता, सबक भी देता है – सब्र का, मेहनत का और अपनेपन का।”
उनकी आवाज़ में वो अपनापन था जो शायद अब शहरों में खो गया है।
मुझे एहसास हुआ — हम मिट्टी से जितना दूर जा रहे हैं, उतना ही खुद से भी।
🌾 Contextual Internal Linking
पिछले हफ्ते मैंने अपने गाँव के त्योहार पर लिखा था — “गाँव के त्योहार की रौनक: जहाँ हर मुस्कान में अपनापन है।”
वहीं से यह किस्सा शुरू हुआ था, क्योंकि त्योहार के अगले ही दिन दादी ने कहा था —
“अब खेत में चल, बेटा… वहाँ असली त्योहार होता है, जहाँ मिट्टी मुस्कुराती है।”
🌙 आख़िरी सोच
आज जब मैं शहर में बैठकर ये यादें लिख रहा हूँ, तो लगता है —
दादी के साथ खेत में गया वो दिन किसी किताब का पन्ना नहीं, बल्कि ज़िंदगी का सबक था।
वो सिखाती हैं कि सुकून किसी luxury में नहीं, बल्कि मिट्टी की उस खुशबू में है जो मेहनत और ममता से मिलकर बनती है।


