अगर आप कभी गाँव में त्योहार के दिनों में गए हों, तो समझेंगे कि वहाँ की हवा तक अलग होती है।
सिर्फ हवा नहीं — उस मिट्टी, उस आवाज़, उस हँसी में कुछ ऐसा होता है जो दिल को छू जाता है।
मेरे गाँव में हर साल जब त्योहार आता है, तो ऐसा लगता है जैसे पूरा गाँव फिर से ज़िंदा हो गया हो।
कच्चे घरों की दीवारों पर नए रंग चढ़ जाते हैं, पुराने कपड़े धुलकर नए जैसे दिखते हैं,
और सबसे खूबसूरत बात — हर चेहरे पर सच्ची मुस्कान होती है।
🪔 त्योहार की शुरुआत – जब गाँव बदलने लगता है
त्योहार के पहले हफ़्ते से ही माहौल बदल जाता है।
सुबह-सुबह चौपाल में चर्चा शुरू हो जाती है —
कौन मेला सजाएगा, कौन मंदिर की सफाई करेगा, और किस घर में कौन-कौन मेहमान आ रहे हैं।
बच्चों के चेहरे पर तो जैसे बिजली सी चमक होती है।
कोई नयी धोती माँग रहा होता है, तो कोई लकड़ी के झूले को रंग रहा होता है।
औरतें मिट्टी के चूल्हे पर पकवानों की लिस्ट बना रही होती हैं।
मेरी दादी हमेशा कहती थीं –
“त्योहार तभी शुरू होता है जब घर के लोग साथ बैठकर हँसने लगते हैं।”
उस एक लाइन में सारा सार है — त्योहार सिर्फ पूजा या सजावट नहीं,
बल्कि साथ होने की भावना है।
🎶 ढोल की थाप और लोकगीतों की गूंज
त्योहार की असली सुबह तब होती है जब ढोल की थाप हवा में गूंजती है।
वो आवाज़ जैसे पूरे गाँव को जगा देती है।
दूर खेतों में काम कर रहे लोग भी उस थाप पर कदम थिरकाने लगते हैं।
बच्चे ढोलक के चारों ओर गोल घेरा बनाकर नाचते हैं,
और बुज़ुर्ग तालियाँ बजाते हुए मुस्कुरा देते हैं —
क्योंकि उन्हें अपने बचपन की याद आ जाती है।
औरतों की टोली मंदिर के आँगन में लोकगीत गाती है।
उनकी आवाज़ में एक अलग सुकून होता है —
ना कोई दिखावा, ना कोई झिझक, बस दिल से गाया गया गीत।
🍛 त्योहार का खाना – स्वाद जो याद रह जाए
त्योहार के दिन मेरे गाँव में जो खुशबू उठती है, वो किसी परफ्यूम से कम नहीं।
रसोई से आती घी और मसालों की खुशबू गलियों तक फैल जाती है।
सुबह से ही औरतें मिलकर व्यंजन बनाती हैं —
पूड़ी, भुने चने, खीर, मंडवे की रोटी, और वो खास “गुड़ की जलेबी” जो सिर्फ त्योहार पर बनती है।
सबसे मज़ेदार बात ये होती है कि कोई भी अकेला नहीं खाता।
हर कोई दूसरे के घर जाकर कहता है –
“थोड़ा चखो ना, हमारे घर की खीर अलग बनी है।”
ऐसे पलों में महसूस होता है कि
त्योहार का असली स्वाद खाने में नहीं, बाँटने में है।

🌿 परंपराएँ जो अब भी ज़िंदा हैं
कई चीज़ें बदल गई हैं –
लोग शहर चले गए, मोबाइल आ गए,
लेकिन कुछ परंपराएँ अब भी उतनी ही सजीव हैं।
त्योहार के दिन हर घर के दरवाज़े पर आम की पत्तियों का तोरण लटकता है,
और दरवाज़े पर हल्दी और चावल का तिलक लगाया जाता है।
बच्चे मंदिर में फूल चढ़ाते हैं,
और शाम को पूरे गाँव की आरती होती है –
जहाँ हर कोई एक ही सुर में गाता है, “जय जय देव जय जय।”
लाइट्स की चमक में अब वो पुराने दीये थोड़ा छिप जाते हैं,
पर उनका उजाला आज भी दिल को छू जाता है।
🎭 मेला और नौटंकी – त्योहार की जान
गाँव का त्योहार बिना मेले के अधूरा है।
रात को स्कूल के मैदान में टेंट लगता है,
चारों ओर रंगीन झंडियाँ और हँसते चेहरे दिखाई देते हैं।
बच्चे झूलों की लाइन में लगते हैं,
और बड़े लोग जलेबी और समोसे की खुशबू से खिंचकर स्टॉल तक पहुँच जाते हैं।
रात होते-होते मंच पर नौटंकी शुरू होती है —
कोई “राम बनता है”, कोई “रावण” और पूरा गाँव दर्शक बन जाता है।
तालियाँ, सीटियाँ, और हँसी — सब एक साथ गूंजते हैं।
मुझे याद है, जब मैं पहली बार नाटक में “लक्ष्मण” बना था,
तो मेरे पिता ने दूर से हाथ हिलाकर कहा था — “शाबाश बेटा!”
वो लम्हा आज भी मेरे दिल में एक दीपक की तरह जलता है।
🌕 त्योहार की आख़िरी रात – शांति और सुकून
जब तीन दिन का त्योहार खत्म होता है,
तो पूरा गाँव एक अलग सी शांति में डूब जाता है।
ढोल थम जाते हैं, लाइट्स बुझ जाती हैं,
लेकिन हवा में एक मीठी सी सुगंध रह जाती है —
जैसे खुशी ने अपना निशान छोड़ दिया हो।
लोग चौपाल पर बैठकर बात करते हैं,
कोई कहता है “अगले साल और बड़ा मेला करेंगे”,
तो कोई बस मुस्कुराकर कह देता है – “जो था, वही काफ़ी था।”
मुझे हमेशा यही रात सबसे खूबसूरत लगती है,
क्योंकि तब महसूस होता है कि
खुशी भी थककर सुकून लेती है।
💭 मन की बात – शहर में वो अपनापन नहीं
कभी-कभी शहर की भीड़ में जब सिग्नल पर खड़ा होता हूँ,
तो याद आता है वो त्योहार का दिन,
जब ट्रैफिक नहीं, बस ढोल की आवाज़ें थीं।
यहाँ सब कुछ है — मॉल, कैफे, गाड़ियाँ —
पर वहाँ जो था, वो कहीं नहीं है: सादगी, साथ और सच्ची खुशी।
गाँव का त्योहार सिखाता है कि
खुशी पैसे से नहीं, लोगों से बनती है।
🌾 पिछली कहानी से जुड़ाव
वैसे, कुछ दिन पहले मैंने लिखा था —
“मेरे गाँव से 10 km दूर वो झील जहाँ सुकून मिला।”
वो कहानी थी “शांति” की।
और आज की कहानी है “खुशी” की —
दोनों मेरे गाँव से आईं,
और दोनों ने मुझे याद दिलाया कि
ज़िंदगी का असली स्वाद तो मिट्टी और मुस्कान में छिपा है।
✅ निष्कर्ष
मेरे गाँव का त्योहार कोई इवेंट नहीं, एक एहसास है।
यहाँ लोग सिर्फ दीप नहीं जलाते,
बल्कि अपने दिलों में भी उजाला करते हैं।
हर साल वही गीत, वही रौनक, वही सादगी —
पर फिर भी हर बार नया लगता है।
शायद इसलिए कहते हैं —
“त्योहार तभी पूरा होता है जब दिल भी मुस्कुरा उठे।”