गर्मियों की छुट्टियों में गाँव की ओर – मेरा अनुभव

गर्मी की छुट्टियाँ आते ही, मन में बस एक ही ख्याल आया — “इस बार गाँव चलते हैं!” सालभर शहर की भागदौड़, मेट्रो का शोर, और स्क्रीन की चमक से मन थक गया था। कहीं अंदर से आवाज़ आ रही थी — “थोड़ा रुक जा, थोड़ा अपनेपन की हवा में साँस ले।”

गाँव गए हुए सालों बीत चुके थे, पर यादें अब भी जस की तस थीं। दादी की हँसी, आम के पेड़, खेतों की पगडंडी और वो नहर जिसमें कभी घंटों नहाते रहते थे। इस बार फैसला किया – मोबाइल पीछे, यादें आगे।

सफर की शुरुआत – जब सड़कें कहानी कहने लगीं

सुबह-सुबह बस पकड़ी। दिल्ली से जैसे-जैसे दूर जाता गया, हवा में ठंडक घुलती गई। खिड़की से बाहर झाँकते हुए मन में वही पुरानी तस्वीरें उभर आईं – छोटे-छोटे गाँव, मिट्टी के घर, खेतों में झुकते किसान, और कहीं दूर बच्चों की हँसी।

कभी सोचा नहीं था कि एक दिन ये सब देखने की इतनी तड़प होगी। बस हिलती-डुलती आगे बढ़ रही थी, और मैं यादों के रास्ते में पीछे जा रहा था।

गाँव के पास पहुँचा तो मिट्टी की खुशबू ने सीधा दिल को छू लिया। पहली बार लगा कि “home” सिर्फ वो नहीं जो शहर में किराए पर लिया है, बल्कि वो है जहाँ दिल खुद को पहचानता है।

गाँव की सुबहें – जहाँ हर दिन नया लगता था

सुबह की पहली रोशनी कमरे में आई तो आँख खुली। ना कोई हॉर्न, ना अलार्म — बस कोयल की आवाज़ और पास के खेतों से आती हवा की ठंडक। शहर में सुबहें शुरू होती हैं मोबाइल के notification से, यहाँ वो शुरू हुई चिड़ियों की चहचहाहट से।

आँगन में दादी बैठी थीं, हाथ में चाय का प्याला और पास में बकरियाँ बँधी थीं। उन्होंने मुस्कुराकर कहा, “आ गया मेरा शहरी पोता?” उस मुस्कान में जितना अपनापन था, उतना किसी five-star breakfast में नहीं होता।

नाश्ते में ताज़ा दूध, मक्खन और दाल पर घी — वो स्वाद, जो किसी branded packet में कभी नहीं मिलेगा।

दोपहरें – आम, नहर और बेफिक्र हँसी

गाँव की दोपहरें अपने आप में एक vibe हैं। सूरज ऊपर होता है, मगर पेड़ों की छाँव इतनी thick कि उसके नीचे ज़िंदगी ठहर जाती है। हमने बच्चों का ग्रुप बनाया — वही पुराने दोस्त, अब थोड़े बड़े हो गए लेकिन दिल वैसे ही बच्चे।

हम सब नहर की ओर भागे। कपड़े झटके और सीधे पानी में छलाँग! पानी ठंडा था, इतना कि पूरे शरीर से जैसे शहर का stress उतर गया हो।

फिर आम के पेड़ों पर चढ़े, कुछ आम खुद तोड़े, कुछ नीचे बैठे बच्चों ने माँगे। शाम तक वही हँसी, वही मज़ाक, वही “कौन पहले पानी में कूदेगा?” वाली बातें। कभी सोचा नहीं था, इतनी simple चीज़ें इतनी खुशी दे सकती हैं।

शामें – जब सूरज और आसमान मिल जाते हैं

शाम होते ही हवा में ठंडक लौट आई। सूरज पहाड़ियों के पीछे छिपने लगा और आसमान में नारंगी रंग फैल गया।
बच्चे खेल खत्म करके घर लौट रहे थे, और औरतें सिर पर पानी के घड़े लिए नहर से आ रही थीं।

आँगन में सब एक जगह इकट्ठा होते, कोई हुक्का सुलगाता, कोई बातें शुरू करता — “याद है जब तू पेड़ से गिर गया था?”
और हम सब हँस पड़ते। वो हँसी सच्ची थी, बिना किसी filter या emoji के।

रात को बिजली कभी आती, कभी नहीं। तो लालटेन जलाई जाती, और ऊपर आसमान — तारे ऐसे दिखते जैसे किसी ने आसमान पर चाँदी बिखेर दी हो। उस पल लगा, शहर में इतनी luxury होते हुए भी, ये शांति वहाँ कभी नहीं मिलती।

गाँव का खाना – मिट्टी के बर्तन में सादगी का स्वाद

रात के खाने का वक्त सबसे प्यारा था। सब लोग आँगन में चारपाई पर बैठते, बीच में थाली, और दादी का प्यार। चूल्हे पर बनी रोटियाँ, सरसों की सब्ज़ी, दाल में घी, और ऊपर से चटनी। खाना ऐसा कि हर कौर के साथ एक कहानी जुड़ी लगती थी।

शहर में हम taste ढूँढते हैं, गाँव में हम connection पाते हैं। वो connection जो पेट नहीं, दिल भर देता है।

गाँव छोड़ते वक्त – जो दिल में रह गया

जब लौटने का दिन आया, तो अजीब-सी चुप्पी थी। दादी कुछ ज़्यादा ही चुप थीं, और मैं थोड़ा ज़्यादा emotional।
गाड़ी चली, और खेत पीछे छूटते गए। हर पेड़, हर मोड़ जैसे कह रहा था — “जल्दी वापस आना।”

उस रास्ते में एहसास हुआ कि गाँव सिर्फ जगह नहीं, वो हमारी जड़ें हैं, जिनसे हम बार-बार दूर जाकर भी लौट आते हैं।
शहर की चकाचौंध में हम modern बन सकते हैं, लेकिन असली grounding वहीं मिलती है जहाँ हमारी मिट्टी है।

एक बात जो रह गई दिल में…

गाँव ने सिखाया कि जिंदगी complicated नहीं है, हम खुद उसे ऐसा बना लेते हैं। यहाँ कोई Wi-Fi नहीं था, पर connection सबसे strong था। यहाँ luxury नहीं थी, पर peace था।

कभी-कभी हमें खुद से जुड़ने के लिए offline होना पड़ता है — और मेरे लिए वो “offline” पल गाँव में मिले।

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